रविवार, मार्च 29, 2015

सैलाब

पानी अपने निशान ढूंढ़ता है अक्सर
शाम की कुछ आवाजों में और फिर
दिल हो कर दरवेश मेरा गिनता है
कदमों की ही हर एक आहट
धुआं प्याली से उठता है ऐसे
दूर सैलाब के बादल बनते है जैसे
मैं फिर कहती हूँ तुमसे
चलो इन सब से दूर कही और
समेट कर चले सारे सिरे
जिंदगी काटने के लिए आखिर
इस सिरे के बाद कुछ और नए
छोर तो ढूंढ़ने हैं सभी को - कभी न कभी

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