मंगलवार, अप्रैल 26, 2016

तुम्हारे निशान

मेरे कंधे के सिरे पर अभी भी निशाँ है तुम्हारे
और उंगलियों कि नरमी तुमसे मिलती
आँखे नादाँ सी करती हैं इंतजार और
दिल याद करता है तुम्हारा स्पर्श बार बार
क्यों याद आती है तुम्हारी ठगती आँखें
जबकि मुझ को भी पता है तुम हो मीलो दूर
मगर प्यार को नहीं पता दूरी क्या होती है
तुमसे मिलती और हवा में भुरती
सपनो के न मिलने कि मजबूरी क्या होती है
सोचती हूँ मैं काश मैं वक़्त पकढ़ लेती और
उसमे तुम्हे बांध कर सिरहाने रख लेती
ताकि खुशबू बिखरती रहे तुम्हारी
और तुम रमते रहो मुझ में ..............

सोमवार, अप्रैल 25, 2016

जिंदगी

आज सुबह फिर खोजे मैंने
सारे निशाँ उसके और मेरे
हाथ आये चंद धागे तुमसे बंधे
बटोरे फिर मैंने सारे ख़वाब और
बांधे काले तावीज़ मन्नत से बंधे
कही ख़वाब को भी नज़र न लगे
आखिर वही तो पास हैं मेरे
तुम्हारी धरोहर संजोये हुए
हर दिन की बात शाम हो जाती है
जिंदगी जो जलती थी शाम के
साये में रौशनी की तरह
देख तेरे जाने के बाद कैसे
आम सी हो जाती है................

रविवार, अप्रैल 10, 2016

तुम्हारी नज़र

देखी थी कल देर शाम ढले मैंने
हम दोनों के बीच पनपती तढ़प
खनकती हँसी के बीच आँखों की वो
अनकही सी, मेरे लिए तुम्हारी कसक
हसरते बचाती रही दामन चुपचाप
पयालियो की पैनी निगाहों से मगर
भुरती रही मुझ में वो तुम्हारी
मरमरी संगमरमर सी नजर
मानों नज़र को तुम्हारी अँधेरा
छिपाना आता है और फिर
चमकती रौशनी में मुझे चुराकर
खुद में मिलाना आता है .......