रविवार, जनवरी 24, 2016

उस दिन




क्या तुमने उस दिन लहरों की आवाज सुनी थी
लहरों के साथ बहती किश्ती की राह चुनी थी
पता तुम्हे भी नहीं है; अपने ही रास्ते का तो
फिर दिखावा क्यों? किस्मत को समझने का
जबकि किस्मत को भी पता है लकीरों का खेल
और उसमे दिन पर दिन उलझता लहरों की रेल
मीलों लम्बे आसमान को नापती हूँ मैं
क्योकिं मुझे याद आता है अभी भी
शाम ढले उन लहरों का मेल



शुक्रवार, जनवरी 15, 2016

निमिटा


इस से पहले कि
रंग बिखरने से दूर क़ही
एक कोलाहल हो
जमीं पर पलों के बीच
अनकहा स्पंदन हो
मन का टूटना जरुरी सा
क्यों होता है
ताकि बरस पर बरस बीत जाएँ
उसे फिर याद करके
एक तार में पिरोने के लिए