बुधवार, मई 04, 2016

तुम्हारी आँखें

मुझे याद आती हैं हर शाम
तुम्हारी वो आँखें, कभी
शरारत से मुस्कुराती तो
कभी दरवेश सा गुनगुनाती
सागर से गहरी वो दो
मुझ में समाती आँखें
याद करती हूँ अक्सर मैं
आँखों को तुम्हारी
इस भीढ़ की दुनिया में
अपनी पलके मूँद कर
और अपने ही सिरहाने
पा लेती हूँ वो आँखें
तुम्हारी वो दो बोलती आँखें

कुछ और

भीढ़ में मैंने खुद को कुछ बहलाया था
तुझसे और तेरी यादों से दूर जाने का
एक मनचला बहाना बनाया था
दूर तुमसे, पंछी की तरह उढ़ने
का छोटा सा सपना भी दिखाया था
कदम न जाने किन नयी राहों पर
चलते रहे तमाम दिन और तमाम रात
मैंने खुद को नए धागों में देख
किस कदर उलझाया था,
मगर कल शाम लौ तले देखा
तो खवाबों के सिरहाने तुम
वही थे मेरा इंतजार करते और
शाम ढले बाँहों में लेकर मुझे
उसी बेखुदी से प्यार करते.....