रविवार, अप्रैल 10, 2016

तुम्हारी नज़र

देखी थी कल देर शाम ढले मैंने
हम दोनों के बीच पनपती तढ़प
खनकती हँसी के बीच आँखों की वो
अनकही सी, मेरे लिए तुम्हारी कसक
हसरते बचाती रही दामन चुपचाप
पयालियो की पैनी निगाहों से मगर
भुरती रही मुझ में वो तुम्हारी
मरमरी संगमरमर सी नजर
मानों नज़र को तुम्हारी अँधेरा
छिपाना आता है और फिर
चमकती रौशनी में मुझे चुराकर
खुद में मिलाना आता है .......

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