गुरुवार, जनवरी 29, 2015

अरिष्टा


उसकी मुस्कान मुझमें अक्सर झलकती है
उसकी हंसी मुझ से मिलकर कुछ और खनकती है
आँखे भी कुछ कुछ मिलती है हमारी
और उनमे सिमटी गहराई भी; अथाह
मानों सपनों ने मेरे अपना ही कोई प्रतिरूप धरा है
राहें मेरी रूकती है हर दिन उस पर ही जा कर
नन्हा हाथ थामे उसका, जिंदगी के रंगों से देखो , कैसे
जिंदगी के हर दिन एक और नयी तस्वीर बनती है

गुरुवार, जनवरी 15, 2015

फिर एक बार


मुझे फिर एक बार
द्वन्द को तिरोहित करना है
और देना है सपनों को एक लम्बा अन्तराल
पढ़ाव की चेष्टा करता है मन
पर डरता है , कहीं
ये मौसमी जुगनू की चमक तो नहीं
या मेरी ही कोई सनक तो नहीं
एक रिक्त सा कोना खाली
आज फिर भरना चाहता है
न जाने कैसी आहट है ये
जिसे सुन मन अपने सिर्फ अपने
गगन में उढ़ना चाहता है ........

इस शाम


चलो इस शाम सूरज को देखे
मैं उसे बोली और फिर
उसे हथेली पर हलके से उतारे
या उसे नन्ही गेंद की तरह
इक दूसरे की और फैंके
और मुस्कुरा दें और
इस बहाने कुछ और बातें
आँखों से सुना दे.............

मगर उसने हलके से मुझे देखा
फिर जाती हुई रेल को
और बोला कैसा होगा अगर
इसे तुम्हारे माथे पर सजा दें
और जिन्दगी भर एक दुसरे का हाथ थामे
हर दिन को सूरज के इंतजार में बिता दें.....

बुधवार, जनवरी 14, 2015

सपने


मेरे तुम्हारे हम सभी के
कुछ सपने है रेत के हर जर्रे में
हर तरफ बिखरते या
मोतिया के फूलों में महकते
पकढ़ने लगती हूँ तो
हथेली मैली सी लगती है
लगता है मानों ग्रहण
हाथ की लकीरों में उतर आया है
सच कितना मुश्किल होता है
सपनों को कुरेदना और
अचानक हाथ की उंगलियो के
बीच उनका छोर पा लेना